Bharti Bhawan Class 10 Biology Chapter 1 Long Type Question Answer / दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
1. पोषण किसे कहते हैं? जीवों में होनेवाली विभिन्न पोषण विधियों का उल्लेख करें।
उत्तर
पोषण : —
- वह विधि जिससे जीव पोषक तत्त्वों को ग्रहण कर उनका उपयोग करते हैं, पोषण कहलाता है।
जीवों में पोषण मुख्यतः दो विधियों द्वारा होता है-
(1) स्वपोषण
(2) परपोषण
(1) स्वपोषण या स्वपोषी पोषण —
- स्वपोषण , पोषण की वह प्रक्रिया है जिसमे जीव अपना भोजन स्वयं संश्लेषित करता है
- ऐसे जीव जो भोजन के लिए अन्य जीवों पर निर्भर न रहकर अपना भोजन स्वयं संश्लेषित करते हैं, स्वपोषी कहलाते हैं सभी हरे पौधे स्वपोषी होते हैं।
(2) परपोषण या विषमपोषी पोषण :—
- परपोषण वह प्रक्रिया है जिसमें जीव अपना भोजन स्वयं संश्लेषित न कर किसी-न-किसी रूप में अन्य स्रोतों से प्राप्त करते हैं। ऐसे जीव परपोषी कहलाते है
परपोषण मुख्य रूप से तीन प्रकार के होते हैं —
(i) मृतजीवी पोषण
( ii) परजीवी पोषण
(iii) प्राणिसम पोषण
(i) मृतजीवी पोषण : -
- इस प्रकार के पोषण में जीव मृत जंतुओं और पौधों के शरीर से अपना भोजन, अपने शरीर को सतह से, घुलित कार्बनिक पदार्थों के रूप में अवशोषित करते हैं।
- वैसे जीव जो अपना भोजन मृतजीवी पोषण के द्वारा प्राप्त करते हैं, मृतजीवी या सैप्रोफाइट्स (saprophytes) कहलाते हैं।
जैसे — कवकों, बैक्टीरिया तथा कुछ प्रोटोजोआ
(ii) परजीवी पोषण : -
- इस प्रकार के पोषण में जीव दूसरे प्राणी के संपर्क में, स्थायी या अस्थायी रूप से रहकर, उससे अपना भोजन प्राप्त करते हैं इस प्रकार, भोजन करनेवाले जीव परजीवी (parasite) कहलाते हैं
- जिस जीव के शरीर से परजीवी अपना भोजन प्राप्त करते हैं, वे पोषी (host) कहलाते हैं
जैसे - गोलकृमि, हुकवर्म, टेपवर्म, एंटअमीबा हिस्टोलीटिका, मलेरिया परजीवी आदि
(iii) प्राणिसम पोषण :-
- वैसा पोषण जिसमें प्राणी अपना भोजन ठोस या तरल के रूप में जंतुओं के भोजन ग्रहण करने की विधि द्वारा ग्रहण करते हैं, प्राणिसम पोषण (holozoic nutrition) कहलाता है
- वैसे जीव जिनमें इस विधि से पोषण होता है, प्राणिसमभोजी कहलाते हैं।
- इस प्रकार का पोषण अमीबा, मेढक, मनुष्य आदि में पाया जाता है।
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2. प्रकाशसंश्लेषण-प्रक्रिया को संक्षेप में समझाएँ।
उत्तर :
प्रकाशसंश्लेषण :–
- जिस प्रक्रिया के द्वारा पौधे अपना भोजन तैयार करते हैं उस मूलभूत प्रक्रिया को प्रकाशसंश्लेषण कहते हैं।
- सूर्य की ऊर्जा की सहायता से प्रकाशसंश्लेषण में सरल अकार्बनिक अणु - कार्बन डाइऑक्साइड (CO₂) और जल (H₂O) का पादप-कोशिकाओं में स्थिरीकरण कार्बनिक अणु ग्लूकोस (कार्बोहाइड्रेट) में होता है।
- प्रकाशसंश्लेषण प्रक्रिया में ऑक्सीजन उपोत्पाद के रूप में बनता है,
6CO2 + 12H20 → 6C6H12O6 + 6CO2 + 6H2O
प्रकाशसंश्लेषण का स्थान :—
- प्रकाशसंश्लेषण की प्रक्रिया आदि से अंत तक क्लोरोप्लास्ट में ही होती है । क्लोरोप्लास्ट में क्लोरोफिल वर्णक पाए जाते हैं। क्लोरोफिल अधिकांशतः पौधों की पत्तियों में पाए जाते हैं, इसीलिए प्रत्तियों को प्रकाशसंश्लेषी अंग कहते हैं एवं हरितलवकों को प्रकाशसंश्लेषी अंगक कहते हैं।
प्रकाशसंश्लेषण-प्रक्रिया के लिए आवश्यक पदार्थ (घटक) :—
1. पर्णहरित या क्लोरोफिल,
2. कार्बन डाइऑक्साइड,
3. जल और
4. सूर्य-प्रकाश।
प्रकाशसंश्लेषण की क्रियाविधि :-
- प्रकाशसंश्लेषण की क्रियाविधि निम्नलिखित दो चरणों में पूर्ण होता है
(I) प्रकाश अभिक्रिया :—
- यह प्रकाशसंलेषण का प्रथम चरण है इसमें जल का प्राकाशिक–अपघटन होता है तथा यह प्रकाश की उपस्थिति में होता है ।
(II) अप्रकाशिक अभिक्रिया :—
- यह प्रकाशसंलेषण का द्वितीय चरण है । इस अभिक्रिया में प्रकाश की आवश्यकता नही पड़ती है । इस अभिक्रिया में हाइड्रोजन, कार्बन डाइऑक्साइड से मिलकर ग्लूकोज बनाता है ।
3. एक प्रयोग द्वारा दर्शाएँ कि प्रकाशसंश्लेषण के लिए क्लोरोफिल आवश्यक है।
प्रयोग : एक क्रोटन (croton) या कोलियस (Coleus) की चित्तीदार पत्ती को तोड़ें। उसकी हरी और सफेद चित्तियों (spots) को रेखांकित करें। इस पत्ती को बीकर में रखे पानी में डालकर कुछ देर उबालें और उबालने के पश्चात उसे गर्म ऐल्कोहॉल या स्प्रिट में डाल दें। अब इस ऐल्कोहॉल वाले बीकर को वाटर बाथ (water bath) में रखकर उबालें। थोड़ी देर में आप देखेंगे कि स्प्रिट हरे रंग का होता जा रहा है; क्योंकि पत्ती में मौजूद हरा वर्णक क्लोरोफिल पत्ती से निकलकर धीरे-धीरे ऐल्कोहॉल में घुल जाता है। जब पत्ती रंगहीन, अर्थात हलके पीले रंग की या सफेद हो जाए तो बीकर को ठंडा होने के लिए छोड़ दें। ठंडा होने के बाद पत्ती को पानी में अच्छी तरह धो डालें। इसके बाद इस पत्ती को पेट्रीडिश (Petri dish) में रखकर उसपर आयोडीन की कुछ बूँदें डालें। आप पाएँगे कि पत्ती का हरी चित्तियोंवाला भाग गाढ़ा नीला रंग का हो जाता है, परंतु पत्ती का सफेद चित्तियोंवाला भाग नीला नहीं होता है। इसका अर्थ यह हुआ कि सफेद भाग पर आयोडीन का कोई असर नहीं हुआ। चूँकि हरी चित्तियोंवाले भाग में क्लोरोफिल मौजूद था, इसीलिए उस हिस्से में प्रकाशसंश्लेषण की प्रक्रिया हुई, जिससे उसमें मंड का निर्माण भी हुआ, परंतु पत्ती के सफेद चित्तियोंवाले भाग में क्लोरोफिल अनुपस्थित होता है, इसीलिए उस भाग में न तो प्रकाशसंश्लेषण की प्रक्रिया हुई और न ही मंड या स्टार्च का निर्माण हुआ। इससे यह साबित होता है कि बिना क्लोरोफिल के प्रकाशसंश्लेषण की प्रक्रिया संपन्न नहीं हो सकती।
class 10th biology bharti bhawan chapter 1 अतिलघु उत्तरीय प्रश्न
4. प्रकाशसंश्लेषण के लिए CO₂ आवश्यक है, इसे साबित करने के लिए एक प्रयोग का वर्णन करें।
उत्तर :
प्रयोग : एक लंबी पत्तीवाले पौधे को, जो गमले में लगा हो, दो दिनों तक अँधेरे में रख दें। इससे इस पौधे में प्रकाशसंश्लेषण की प्रक्रिया नहीं हो पाएगी और पत्तियों में स्टार्च नहीं बनेगा। अब एक चौड़े मुँह की बोतल में थोड़ा-सा कास्टिक पोटाश (KOH) का सांद्र घोल लें। बोतल के कॉर्क को बीचोबीच काटकर दो टुकड़ों में बाँट दें और टुकड़ों के बीच पत्ती को इस प्रकार दबाकर डालें कि पत्ती का आधा भाग बोतल के अंदर हो और पत्ती का आधा भाग बोतल से बाहर। उपकरण को कुछ घंटों के लिए सूर्य की रोशनी में छोड़ दें। करीबन चार घंटों के बाद पत्ती को बोतल से बाहर निकालकर तोड़ लें एवं स्टार्च की मौजूदगी की जाँच करें। इसके लिए पत्ती को ऐल्कोहॉल में थोड़ी देर तक उबाल लें। जब पत्ती रंगहीन हो जाए तब इसे पानी से धोकर आयोडीन के घोल में डुबा दें। आप पाएँगे कि पत्ती का वह भाग जो बोतल के बाहर था, गाढ़े नीले रंग का हो जाता है तथा जो भाग अंदर था, वह हलके पीले रंग का हो जाता है। इसका कारण यह है कि आयोडीन स्टार्च को नीला कर देता है। पत्ती का वह भाग जो बोतल के अंदर था, नीला नहीं होगा; क्योंकि पोटाश का घोल कार्बन डाइऑक्साइड को सोख लेता है जिससे पत्ती के भीतरी भाग में स्टार्च नहीं बन पाता है। इस प्रयोग से यह साबित होता है कि प्रकाशसंश्लेषण के लिए कार्बन डाइऑक्साइड आवश्यक है।
5. अमीबा का भोजन क्या है? अमीबा में पोषण का वर्णन करें।
उत्तर : अमीबा एक सरल प्राणिसमपोषी जीव है। यह मृदुजलीय, एककोशीय तथा अनिश्चित आकार का प्राणी है। इसका आकार कूटपादों के बनने और बिगड़ने के कारण बदलता रहता है। इसके शरीर में पोषण के लिए कोई विशेष रचना नहीं होती है। ये अपने कूटपादों की मदद से ही भोजन ग्रहण करता है।
अमीबा का भोजन शैवाल के छोटे-छोटे टुकड़े, बैक्टीरिया, डायटम, अन्य छोटे एककोशिक जीव तथा मृत कार्बनिक पदार्थ के छोटे-छोटे टुकड़े इत्यादि हैं।
अमीबा में पोषण अंतर्ग्रहण, पाचन तथा बहिष्करण प्रक्रियाओं द्वारा पूर्ण होता है।
अमीबा में भोजन के अंतर्ग्रहण के लिए मुख जैसा कोई निश्चित स्थान नहीं होता है, बल्कि यह शरीर की सतह के किसी भी स्थान से हो सकता है।भोजन जब अमीबा के बिलकुल समीप होता है तब अमीबा भोजन के चारों ओर कूटपादों का निर्माण करता है। कूटपाद तेजी से बढ़ते हैं और भोजन को पूरी तरह घेर लेते हैं। धीरे-धीरे कूटपादों के सिरे तथा फिर पार्श्व आपस में जुड़ जाते हैं। इस तरह एक भोजन-रसधानी का निर्माण हो जाता है जिसमें भोजन के साथ जल भी होता है।
भोजन का पाचन भोजन-रसधानी में ही एंजाइमों के द्वारा होता है। पचा हुआ भोजन भोजन-रसधानी से निकलकर कोशिकाद्रव्य में पहुँच जाता है, वहाँ से फिर समूचे शरीर में वितरित हो जाता है। अमीबा में अपचे भोजन को शरीर से बाहर निकालने के लिए निश्चित स्थान नहीं होता है। शरीर की सतह के किसी भाग में एक अस्थायी छिद्र का निर्माण होता है जिससे अपचा भोजन बाहर निकल जाता है।
6. मनुष्य के आहारनाल की रचना का वर्णन करें।
उत्तर :
मनुष्य का आहारनाल :—
- यह एक कुंडलित रचना है जिसकी लंबाई करीब 8 से 10 मीटर तक की होती है। यह मुखगुहा से शुरू होकर मलद्वार तक फैली होती है।
आहारनाल के विभिन्न भागों की संरचना तथा उनके कार्य :—
मुखगुहा : -
- मुखगुहा आहारनाल का पहला भाग है। यह ऊपरी तथा निचले जबड़े से घिरी होती है। मुखगुहा में जीभ तथा दाँत होते हैं।
ग्रसनी :—
- मुखगुहा का पिछला भाग प्रसनी कहलाता है। इसमें दो छिद्र होते हैं-
(i) निगलद्वार
(ii) कंठद्वार
(i) निगलद्वार :—
- ये आहारनाल के अगले भाग (ग्रासनली) में खुलता है
(ii) कंठद्वार :—
- ये श्वासनली में खुलता है। कंठद्वार के आगे एक पट्टी जैसी रखना होती है, जो एपिग्लोटिस कहलाता है। मनुष्य जब भोजन करता है तब यह पट्टी कंठद्वार को ढंक देती है, जिससे भोजन श्वासनली में नहीं जाता है
4. ग्रासनली :—
- मुखगुहा से लार से सना हुआ भोजन निगलद्वार के द्वारा ग्रासनली में पहुँचता है ग्रासनली में क्रमाकुंचन गति के कारण भोजन आमाशय में पहुंचता है । ग्रासनली में पाचन क्रिया नहीं होती है।
आमाशय :—
- यह एक चौड़ी थैली जैसी रचना है जो उदर-गुहा के बाईं ओर से शुरू होकर अनुप्रस्थ दिशा में फैली होती है।आमाशय का अग्रभाग कार्डिएक तथा पिछला भाग पाइलोरिक भाग कहलाता है कार्डिएक और पाइलोरिक के बीच का भाग फुण्डिक भाग कहलाता है। आमाशय ग्रंथि या जठर ग्रंथि उपस्थित होती है
छोटी आँत :—
- छोटी आँत आहारनाल का सबसे लंबा भाग है मनुष्य में इसकी लंबाई लगभग 6 मीटर तथा चौड़ाई 2.5 सेंटीमीटर होती है। छोटी आँत में पाचन की क्रिया पूर्ण होती है। छोटी आँत में भोजन का पाचन पित्त, अग्न्याशय रस तथा आंत्र – रस या सक्कस एंटेरिकस की क्रिया द्वारा होता है
छोटी आँत तीन भागों में बांटा होता है
(i) ग्रहणी
(ii) जेजुनम
(iii) इलियम
बड़ी आँत :—
- छोटी आँत आहारनाल के अगले भाग बड़ी आँत में खुलती है।
बड़ी आँत दो भागों में बँटा होता है।
(i) कोलन
(ii) मलाशय या रेक्टम
- छोटी आँत तथा बड़ी आँत के जोड़ पर एक छोटी नली होती है जो सीकम कहलाता है। सीकम के शीर्ष पर एक अँगुली जैसी रचना होती है, जिसका सिरा बंद होता है। यह रचना ऐपेंडिक्स कहलाती है। मनुष्य के आहारनाल में ऐपेंडिक्स का कोई कार्य नहीं होता है। यह एक अवशेषी अंग है
कोलन तीन भागों में विभक्त होता है।
(i) उपरिगामी कोलन
(ii) अनुप्रस्थ कोलन
(iii) अधोगामी कोलन
- अधोगामी कोलन रेक्टम में खुलता है, जो अंत में मलद्वार के द्वारा शरीर के बाहर खुलता है। अपचा भोजन अस्थायी तौर पर रेक्टम में संचित रहती है ।
7. मनुष्य के आहारनाल में पाचन की क्रिया का वर्णन करें।
उत्तर :
8. मनुष्य के आहारनाल का एक स्वच्छ नामांकित चित्र बनाएँ। वर्णन की आवश्यकता नहीं है।
उत्तर :
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